Thursday, November 17, 2011

सुरक्षा के नाम पर कहीं सेहत ताक पर तो नहीं

24 साल का संजीव एक कुरियर कंपनी में काम करता है। वह सुबह घर से ऑफिस जाने के लिए मेट्रो का इस्तेमाल करता है। रोजाना कम से कम 15 दफ्तरों में डिलीवरी देता है। इसके बाद फिर शाम को वह मेट्रो से घर जाता है। उसके दायरे में आने वाले दफ्तरों में से कम से कम 80 पर्सेंट के गेट पर मेटल डिटेक्टर लगे हुए हैं, क्योंकि वह पूरा दिन फील्ड में रहता है, ऐसे में अपना लंच बॉक्स और पानी की बॉटल भी साथ रखता है। कुल मिलाकर वह पूरे दिन 12 से 15 बार मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरता है और इतनी ही बार उसका लंच बॉक्स भी स्कैनर से गुजरता है।
मेटल डिटेक्टर के दौर की लाइफ का संजीव एक उदाहरण भर है। उसके जैसे हजारों युवाओं का डेली शेड्यूल कुछ इसी तरह का होता है। क्योंकि आजकल एयरपोर्ट या किसी सरकारी दफ्तर में ही नहीं, मॉल, मेट्रो स्टेशन, सिनेमा हॉल, कुछ रेलवे स्टेशन और यहां तक कि बड़ी कंपनियों के दफ्तर में प्रवेश के दौरान मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरना पड़ता है। इनमें से अधिकतर जगहों पर वॉकथ्रू मेटल डिटेक्टर के साथ-साथ पोर्टेबल मेटल डिटेक्टर और बैगेज स्कैनर जैसी चीजें भी इस्तेमाल की जाती हैं। पोर्टेबल मेटल डिटेक्टर लोगों के शरीर से लगाकर उनकी जांच की जाती है। कुल मिलाकर ये मेटल डिटेक्टर शहरी जीवन की नियमित दिनचर्या का हिस्सा बनते जा रहे हैं। हालांकि, आए दिन होने वाली आतंकी घटनाओं से बचाव के मद्देनजर इन चीजों की जरूरत से भी इनकार नहीं किया जा सकता, मगर इन उपकरणों की बढ़ती तादाद को देखकर अकसर दिमाग में कई सवाल कौंधते हैं, मसलन हम एक्सरे, अल्ट्रासाउंड मशीनों और मोबाइल जैसी चीजों से निकलने वाले रेडिएशन के मसले पर तो बात करते हैं पर मेटल डिटेक्टर की क्यों नहीं, जबकि इनमें से भी उसी तरह का रेडिएशन निकलता है। इन मशीनों के रेडिएशन से सुरक्षा के लिए कोई पैमाना निर्धारित किया गया है और अगर पैमाना है तो उसका कितना पालन हो रहा है? क्या तमाम जगहों पर इस्तेमाल हो रहे इन उपकरणों के रेडिएशन मीटर की जांच के लिए कोई विशेष एजेंसी अथवा कमिटी का गठन किया गया है?
पड़ताल करने पर इनमें से 90 पर्सेंट सवालों का जवाब ना में मिला। इन उपकरणों को बनाने और इंस्टॉल करने वाली कंपनियां जरूर यह दावा करती हैं कि मशीनों में रेडिएशन की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठनों के मानकों के अनुसार तय की जाती हैं, मगर एक बार की गई सेटिंग क्या हमेशा बनी रहती है, इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिलता है। कई अध्ययनों से यह बात साबित हो चुकी है कि नियमित रूप से रेडिएशन के संपर्क में आना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इससे न सिर्फ कैंसर और न्यूरो से जुड़ी गंभीर बीमारियां हो सकती हैं बल्कि पुरुषों में स्पर्म काउंट कम हो सकता है और महिलाओं की प्रजनन क्षमता पर भी असर पड़ सकता है। अगर गर्भवती महिला रेडिएशन की चपेट में आ जाए तो उसके अजन्मे बच्चे पर भी बुरा असर पड़ता है। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के एक्सपट्र्स कहते हैं कि मेटल डिटेक्टर को लेकर अब तक देश में अलग से कोई स्टडी नहीं की गई है, मगर इन मशीनों में रेडिएशन की मात्रा काफी कम होती है और रेडिएशन का स्तर सही रहता है तो कैंसर जैसी गंभीर समस्या सामने नहीं आ सकती, मगर टॉक्सिकोलॉजिस्ट डॉ। हसनैन पटेल की राय इससे उलट है। वह कहते कि सिर्फ इसलिए बॉडी स्कैनर के रेडिएशन के असर से इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इस बारे में कोई स्टडी नहीं की गई। वह अब तक इससे संबंधित स्टडी नहीं होने के पीछे बड़ी बिजनेस लॉबी को जिम्मेदार ठहराते हैं।
रॉकलैंड हॉस्पिटल की स्त्रीरोग विशेषज्ञ डॉ. आशा शर्मा कहती हैं, बॉडी स्कैनर को लेकर देश में कोई स्टडी नहीं हुई है फिर भी मैं अपने मरीजों को इन चीजों के बार- बार एक्सपोजर से बचाव की सलाह देती हूं। हो सकता है कि एक-दो बार ऐसी मशीनों के संपर्क में आना खतरनाक न हो मगर बार- बार इनके संपर्क में आने से सेहत को खतरा हो सकता है। अमेरिका में हुई एक स्टडी के मुताबिक 200 रेम्स या इससे ज्यादा रेडिएशन के संपर्क में आने से बालों के झडऩे की समस्या शुरू हो जाती है। 5000 रेम्स से ज्यादा रेडिएशन के संपर्क में आने पर ब्रेन के सेल्स डैमेज हो सकते हैं। रेडिएशन नर्व के सेल्स और छोटी रक्त नलिकाओं को खत्म कर सकता है ऐसे में ब्रेन स्ट्रोक हो सकता है, जो कि मौत का कारण भी बन सकता है। शरीर के कुछ हिस्से रेडिएशन के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं। थायरॉयड ग्लैंड इनमें से एक है। यह रेडियोएक्टिव आयोडीन को लेकर काफी ग्रहणशील होती है। ज्यादा मात्रा में रेडिएशन से यह ग्लैंड पूरी तरह डैमेज हो सकती है। 100 रेम के स्तर वाले रेडिएशन के संपर्क में आते ही रक्त में लिंफोसाइट सेल काउंट कम होने लगता है। ऐसे में व्यक्ति विभिन्न तरह के संक्रमण के लिए ज्यादा प्रोन हो जाता है। ऐसे मामलों में आमतौर पर फ्लू के लक्षण दिखते हैं, लेकिन सही स्थिति का पता तब नहीं लगाया जा सकता जब तक ब्लड काउंट के लिए टेस्ट न कराया जाए। हिरोशिमा और नागासाकी से मिले डेटा में पाया गया कि रेडिएशन के लक्षण 10 सालों तक बने रह सकते हैं और आगे चलकर ये ल्युकीमिया, लिंफोमा जैसी बीमारियों का खतरा भी बढ़ा सकते हैं। 1000 से 5000 रेम्स तक रेडिएशन के संपर्क से छोटी रक्त नलिकाएं तुरंत डैमेज हो सकती हैं, जो हार्ट फेलियर की वजह बन सकती हैं और ऐसे में तुरंत व्यक्ति की मौत हो सकती है। 200 रेम्स तक एक्सपोजर से व्यक्ति का गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक प्रभावित हो सकता है। ऐसे में मितली, खून की उल्टी और डायरिया जैसे लक्षण सामने आते हैं। 200 रेम्स के एक्सपोजर से रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट भी प्रभावित हो सकता है। एक्सपोजर लंबा होने पर पुरुषों का स्पर्म काउंट शून्य तक पहुंच सकता है। एक्सपट्र्स गर्भ के पहले तीन महीनों के दौरान बॉडी स्कैनर के संपर्क में आने से महिलाओं को सख्ती से मना करते हैं, क्योंकि इसी दौरान भ्रूण में महत्वपूर्ण अंगों की संरचना होती है और इस स्थिति में रेडिएशन के असर से उनमें जन्मजात अपंगता आ सकती है। रेडिएशन दिल की धड़कनों को नियंत्रित रखने के लिए मरीजों में लगे पेसमेकर जैसी डिवाइस की कार्यक्षमता को भी प्रभावित कर सकती है। अमेरिका की हेल्थ फिजिक्स सोसायटी के मुताबिक मेटल डिटेक्टर में इस्तेमाल से होने वाले आयनित रेडिएशन रैड, रेम, रोएंटजेन जैसी यूनिटों में नापी जाती है। यहां के ऑफिस ऑफ रेडिएशन सेफ्टी के मुताबिक, गर्भवती महिलाओं को पूरी प्रेग्नेंसी के दौरान 500 मिलीरेम्स अथवा 0.5 रेम से ज्यादा और एक महीने के भीतर 50 एमरेम से ज्यादा एक्सपोजर नहीं होना चाहिए। हालांकि मेटल डिटेक्टर से काफी कम रेडिएशन निकलता है, लेकिन कुछ मेडिकल एक्सरे 5 एमरेम तक तो कुछ 60 एमरेम तक रेडिएशन एक्सपोजर दे सकते हैं। मेटल डिटेक्टर अगर सही नहीं है तो उसका रेडिएशन भी खतरनाक स्तर तक पहुंच सकता है।
हेल्थ फिजिक्स सोसायटी ने ऐसे उपकरणों के इस्तेमाल के संबंध में कुछ दिशानिर्देश भी दिए हैं, जिनमें कहा गया है कि इनका इस्तेमाल प्रशिक्षित लोगों द्वारा ही होना चाहिए। अगर कोई रेडिएशन वाल उपकरणों के आस-पास रोजाना काम करता है तो उसे इससे दूर रहने की कोशिश करनी चाहिए। यह सुनिश्चित करें कि डिवाइस ब्लॉक्ड या शील्डेड है। ऐसे उपकरण की रेडिएशन लेवल ज्यादा नहीं हो रही है यह जांचने के लिए नियमित तौर पर इसे मेजर किया जाना चाहिए। अगर इसके लिए निश्चित नहीं हैं तो एक रेडिएशन लेवल का पता लगाने वाले बैज पहन कर रखें। अगर आपको ऐसा लगता है कि रेडिएशन के संपर्क में आए हैं तो तुरंत हाथ साबुन से धोएं और रेडिएशन के असर को खत्म करने के लिए एक्सपर्ट के पास जाएं। मगर यहां ज्यादातर जगहों पर सुरक्षा गार्ड इन उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें इसका कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। ऐसे में तकनीकी खराबी उन्हें समझ ही नहीं आएगी। इस स्थिति में मेटल डिटेक्टर के असर को लेकर न सिर्फ सरकार को बड़े पैमाने पर अध्ययन कराना चाहिए, बल्कि इनके इस्तेमाल के लिए जरूरी दिशानिर्देश भी तैयार कराने चाहिए और इन दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन हो इसके लिए एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन भी हो ताकि समय- समय पर जांच और लापरवाही की स्थिति में जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई भी की जा सके, क्योंकि ये मेटल डिटेक्टर नई पीढ़ी की दिनचर्या का हिस्सा बन गए हंै और उनकी सेहत के साथ देश का भविष्य जुड़ा हुआ है।

Friday, December 4, 2009

दिल्ली की ग्रीनरी यानी सावन के अंधे की हरियाली
यहां की ग्रीनरी का ज्यादातर हिस्सा एनवायरनमेंट फ्रेंडली नहीं
हकीकत
नीतू सिंह ॥ नई दिल्ली

ग्रीन कवर बढ़ाने के मामले दिल्ली सरकार भले ही अपने टारगेट से आगे चलने का दावा कर रही हो, लेकिन यहां की ग्रीनरी का ज्यादातर हिस्सा एनवायरनमेंट फ्रेंडली नहीं है। एनवायरनमेंट के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों का मानना है कि सरकारी एजेंसियों ने ग्रीन कवर की परिभाषा अपने तरीके से बदल दी है और जीआईएस (ज्योग्राफिक इन्फर्मेशन सिस्टम) में जितना एरिया हरा नजर आता है, उसे ग्रीन कवर का हिस्सा मान लिया जाता है। जबकि दिल्ली का ज्यादातर पुराना ग्रीन कवर जंगली जलेबी जैसी झाडिय़ों का रह गया है और नए प्लांटेशन की प्लानिंग सिर्फ ग्रीन कवर के टारगेट को पूरा करने के उद्देश्य से की गई है, न कि एनवायरनमेंट के लिहाज से।
एनवायरनमेंट एक्टिविस्ट अनादीश पाल कहते हैं कि पहले रिजर्व फॉरेस्ट और बड़े लोकल पेड़ों वाले एरिया को ही ग्रीन कवर मानते थे, लेकिन अब सड़क किनारे लगे खूबसूरती बढ़ाने वाले पौधों और छोटी-छोटी झाडिय़ों को भी ग्रीन कवर माना लिया जाता है। यही वजह है कि दिल्ली को सबसे हरे-भरे शहरों में शुमार किया जा रहा है। हकीकत यह है कि दिल्ली की सबसे ज्यादा ग्रीनरी रिज एरिया की है (7777 हेक्टेयर) और इसमें करीब 70 पर्सेंट हिस्सा अफ्रीकी पौधे - जंगली जलेबी और कीकर का है, जो तेजी से पानी सोखते हैं। इससे ग्राउंड वॉटर लेवल तो खराब होता ही है, उस हिस्से में लोकल घास और पौधे भी नहीं उगते। अनादीश कहते हैं कि पहले दिल्ली में जामुन, पलाश, महुआ, आम, नीम, पीपल व बरगद के पेड़ ज्यादा होते थे। इनकी देखभाल भी आसान है और ये एनवायरनमेंट फ्रेंडली होते हैं। ये पौधे समय के साथ रंग बदलते रहे। जब अंग्रेजों ने यहां शासन जमाया तब वे हर समय दिल्ली को हरा-भरा देखना चाहते थे इसलिए जितना खाली एरिया था उसमें अफ्रीका से जंगली जलेबी के बीज लाकर डलवा दिए। इसकी वजह से यहां के लोकल पौधे खत्म हो गए और ये पौधे बढ़ते चले गए।
एनवायरनमेंट के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था कल्पवृक्ष के साइंटिस्ट प्रभाकर कहते हैं कि फिलहाल एनडीएमसी के कुछ वीआईपी इलाकों के सड़क किनारे लगे पेड़ों को छोड़ दें तो पुराने अच्छे पेड़ों का रखरखाव सही तरीके से नहीं हो रहा है। इन्हें टाइल और तारों से ऐसे घेर दिया गया है कि इनका विकास नहीं हो पा रहा है। ऐसे में धीरे-धीरे ये पेड़ गिरते जा रहे हैं। नए कंस्ट्रक्शन में लाखों पेड़ काट दिए गए, जिनके बदले 10 गुना ज्यादा पेड़ लगाने थे। उदाहरण के तौर पर अगर ढाई लाख पेड़ कटे हैं तो 25 लाख नए पौधे लगाने होंगे, इस टारगेट को पूरा तो किया जा रहा है, मगर यह सिर्फ खानापूर्ति है। ज्यादातर प्लांटेशन शहर के बाहरी इलाकों में हो रहा है, जबकि जरूरत आबादी वाले इलाकों की आबोहवा सुधारने की है। इसकी जगह पर कॉलोनी के पार्कों में लोकल पौधे लगाए जाने चाहिए, जहां सिर्फ खूबसूरती बढ़ाने वाले पौधे लगाए गए हैं। सड़कों के किनारे लग रहे पौधे भी सिर्फ शोपीस हैं। इतना ही नहीं, कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान सड़कों की खूबसूरती बढ़ाने के लिए 275 करोड़ रुपये की लागत से मध्यम लंबाई के करीब सात लाख विदेशी पौधे मंगाए जाएंगे, जिन्हें मिट्टïी के गमलों में गेम्स होने तक सड़कों के किनारे रख दिया जाएगा और बाद में इन्हें हटा या नष्टï कर दिया जाएगा। इस योजना के तहत मॉल रोड के नजदीक छत्रसाल स्टेडियम और डीयू के आसपास के 3.6 किमी एरिया को भी कवर किया जाएगा, जिसमें 25 लाख का खर्च आएगा।

प्लांटेशन का अचीवमेंट (पर्सेंट में)
वर्ष टारगेट अचीवमेंट
2001 9.30 9.38
2002 9.00 9.10
2003 9.85 9.16
2004 10.50 11.44
2005 12.54 13.53


दिल्ली सरकार के फॉरेस्ट रिर्सोस असेसमेंट के आंकड़ों के मुताबिक, राजधानी का टोटल एरिया 1483 स्क्वेयर किमी है और यहां का ग्रीन कवर एरिया 283 स्क्वेयर किमी है। यानी राजधानी की 19.09 पर्सेंट धरती हरी-भरी है।

Wednesday, September 9, 2009

सहारा ढूंढने वाले हाथ बने सहारा

वे सब 70 के पार हैं। लेकिन थकान का नामोनिशान नहीं। इस उम्र में जब अक्सर लोग सहारे की तलाश करते हैं, ये अपने अनुभव में जोश को मिला कर गरीबों के लिए काम कर रहे हैं। यह कहानी है रोहिणी के सेक्टर-3 में रहने वाले कुछ बुजुर्गों की जो क्लास-वन ऑफिसर रह चुके हैं। रिटायरमेंट के बाद भी कुछ करने के जज्बे को कायम रखते हुए इन्होंने ऐसे बच्चों की जिंदगी को सही नींव देने की सोची, जिनके माता-पिता मजदूरी करते हैं और जिनके लिए बच्चों की पढ़ाई से ज्यादा जरूरी दो वक्त का पेट पालना होता है। रॉ में अफसर रह चुके 75 साल के के. सी. भारद्वाज कहते हैं कि अपने बच्चे पढ़-लिखकर सेटल हो चुके थे तो रिटायरमेंट के बाद ऐसा लगने लगा कि करने को कुछ बचा ही नहीं है। ऐसे में घर में काम करने वाली मेड के बच्चे ने मेरी जिंदगी को नया मकसद दे दिया। दो साल पहले एक दिन वह अपने तीन साल के बच्चे को लेकर आई थी, मैं उसके साथ खेलने लगा और कुछ सवाल पूछ लिए तो उसने जो जवाब दिए उससे लगा कि अगर इन बच्चों को मौका मिले तो ये भी बहुत कुछ कर सकते हैं। फिर मैं उसे रोज घर बुलाने लगा और धीरे-धीरे उसके साथ 5-6 और बच्चे भी आने लगे। मैंने कॉलोनी के अपने कुछ और रिटायर्ड दोस्तों से बात की तो उन्होंने भी साथ मिलकर बच्चों के लिए काम करने की इच्छा जताई। फिर हमने अपने घर को ही प्ले स्कूल की तरह डिवेलप किया। कंप्यूटर, टीवी और एक टीचर की व्यवस्था की। अब दो से चार साल तक के 35 बच्चे यहां आते हैं। रेलवे से रिटायर्ड अधिकारी बी. एम. भाटिया बताते हैं कि ये बच्चे सुबह 10 बजे आते हैं और दोपहर 2 बजे घर जाते हैं। इन्हें नाश्ता, लंच, कपड़े, जूते, पेपर, कॉपी, पेंसिल, कलर, किताबें जैसी पढ़ाई-लिखाई से जुड़ी हर चीज यहीं से मुहैया कराई जाती हैं। इन बच्चों के सारे काम और खर्चों की जिम्मेदारी हम सातों दोस्त मिलकर उठाते हैं और चार साल का हो जाने के बाद बच्चों को स्कूल में एडमिशन दिलाने में भी मदद करते हैं। उनके इस मिशन में सुशीला, कृष्णा, अंशु, मधु और सुरेंद्र भी शामिल हैं।

ढलती सांझ में भी धूप की तपिश

वे कभी परिवार और समाज के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति हुआ करते थे, पर आज ओल्ड एज होम में उपेक्षित जीवन जी रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनका कोई वली वारिस नहीं है, भरा-पूरा और संपन्न परिवार है, लेकिन उन्हें मिली है उपेक्षा, एकाकीपन और भविष्य के प्रति चिंता। आंखों से खारा पानी सूख गया है, फिर भी वे किसी को दोष नहीं देते। रेत पर खिंची लकीरों की तरह झुर्रीदार चेहरा आसमान की ओर उठाकर ताकते हुए बस वे इतना कहते हैं कि हमें उनसे न कोई शिकवा है न शिकायत। पर हां, उनके कथन में निराशा नहीं, आत्म-विश्वास है, जीने की इच्छा है। शरीर और परिवार जरूर उनका साथ छोड़ता जा रहा है, लेकिन मन में दृढ़ संकल्प है। यह कहानी है नेताजी नगर स्थित संध्या ओल्ड एज होम में रहने वाले 52 बुजुर्गों की। इनमें से 90 प्रतिशत से ज्यादा लोग क्लास वन ऑफिसर रह चुके हैं और उन्होंने परिवार व समाज से जुड़ी जीवन की सारी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है। पर जीवन के आखिरी पड़ाव में पारिवारिक भूमिका में शायद वे फिट नहीं बैठ पाए, इसलिए अकेलेपन को ही जीवन का सत्य मानकर संतुष्टï हो गए हैं। जीवन के प्रति सकारात्मक रवैये का नमूना यह है कि वे अपने आपको उपेक्षित मानकर न तो चुपचाप बैठते हैं और न ही परिवार की शिकायत करते हैं। वे सुबह शाम अपनी महफिल जमाते हैं और अखबारों की खबरों तथा देश दुनिया की राजनीति पर चर्चा करते हैं। हां, उस समय उनके अकेलेपन का दर्द जरूर झलकने लगता है, जब कोई नया व्यक्ति उन्हें मिल जाता है। चाहे वह कूरियर वाला, पोस्टमैन, डॉक्टर अथवा अपनी जिज्ञासा लेकर पहुंचा कोई रिपोर्टर हो। कुछ पल के साथ में ही वे अपनी सारी भावनाओं को उड़ेल देना चाहते हैं। पर इस दौरान भी वे इस बात का ख्याल जरूर रखते हैं कि गलती से भी उनके मुंह से ऐसा कुछ न निकले जिससे उनके अपनों की रुसवाई हो। ऑल इंडिया रेडियो में न्यूज रीडर रहे एक बुजुर्ग कहते हैं कि मेरी तीन बेटियां हैं, तीनों की शादी हो चुकी है और क्योंकि हमारी संस्कृति बेटी के घर में रहने की अनुमति नहीं देती, इसलिए मैं यहां रहता हूं। वरना मेरी बेटियां मुझे बहुत प्यार करती हैं। स्टील प्लांट में इंजीनियर रह चुके एक बुजुर्ग बड़े गर्व से बताते हैं कि मेरे तीन बेटे हैं, जिनमें से दो अमेरिका में हैं और एक इंडिया में है। वह ओल्ड एज होम में क्यों रहते हैं पूछने पर कहते हैं, यह भी तो मेरा अपना परिवार है। यहां रहने वालों में नौ कपल हैं, छह अकेली महिलाएं और बाकी पुरुष हैं। इनमें कोई एम्स में, कोई पूसा में, कोई रेलवे में कोई जल बोर्ड में तो कोई प्रशासनिक सेवा में रह चुका है और लगभग सभी लोगों को पर्याप्त पेंशन आदि मिलता है। इसके बावजूद उन्हें यहां क्यों रहना पड़ता है? पूछने पर कहते हैं यहां सुबह छह बजे चाय मिलती है, आठ बजे नाश्ता और एक बजे लंच मिल जाता है। घर में व्यस्त बहू, बेटियां अपने तरीके से सोती हैं, अपने तरीके से जागती हैं, इस सबके बीच हमारे नियम उनके लिए परेशानी खड़ी करें इससे अच्छा है कि वो अपनी जिंदगी में खुश रहें और हम अपनी में।

Thursday, August 14, 2008

आजादी का अनमोल अहसास

८/८/०८ की तारीख को लेकर काफ़ी पहले से चर्चा चल रही थी, कोई इस तारीख को अशुभ बता रहा था तो कोई शुभ। अब तारीख निकल चुकी है। और लोगों के लिए यह कैसी रही, मैं नहीं जानती मगर हमारे लिए बहुत ही ख़ास उसआप सोच रहे होंगे की मैं हमारे क्यूँ कह रही हूँ, तो मैं बता दूँ-की ये मेरा और मेरी काफ़ी करीबी दोस्त का साझा अनुभव है।

सुबह ७ बजे घर से निकलते समय मुझे काफ़ी बुरा लग रहा था क्यूंकि आमतौर पर मेरी सुबह ९ बजे के बाद ही होती है। मगर मजबूरी में इंसान क्या नहीं करता, सो मुझे भी आए दिन अपनी सुबह की अच्छी नींद गवानी ही पड़ जाती है। चलिए उस दिन भी जल्दी से तैयार होकर एम्स पहुँची। जिस काम के लिए गई थी वह एक घंटे में ही निबट गया फ़िर ख़बरों की तलाश में कुछ लोगों से भी मिल आई। सब कुछ निबट गया पर अब एक बार घर से निकल चुकी थी इसलिए घर वापस जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था, क्यूंकि मुझे दो बजे एक सीनियर डॉक्टर से मिलने के लिए राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल जन था इसलिए अपनी दोस्त को फोन किया, पता लगा की इत्तिफाक से वह भी एम्स में ही थीं, क्यूंकि उनकी दादी वहां भरती थीं। मैं उनके पास चली गई। उन्होंने कहा ही स्वतंत्रता दिवस की रिपोर्टिंग के लिए उन्हें पहचान पत्र बनवाना है और उसका अप्लिकेशन अभी तक नहीं दिया है। तो फैसला ये हुआ की हम लोग पहले प्रेजिडेंट हाउस जाएँगे फ़िर वहीं से वह मुझे राम मनोहर लोहिया छोड़ देंगी।

थोडी देर में हम लोग हॉस्पिटल से निकले। उस दिन हलकी बारिश तो पहले से ही हो रही थी, हमारे निकलते ही काफ़ी तेज हो गई और प्रेजिडेंट हाउस तक पहुँचते पहुँचते पानी ही पानी नजर आने लगा। बारिश का नजारा देख कर भीगने का मन करने लगा लेकिन सोचा की नहीं, भीग कर किसी से मिलने जाना अच्छा बहिन लगेगा। लेकिन प्रेजिडेंट हाउस में अप्लिकेशन देने पहुंचे तो पता लगा की एक बज गया है इसलिए दो बजे के बाद ही काम हो पाएगा। अब एक घंटे तक इन्तेजार करना था और बारिश हो रही थी इसलिए गाड़ी में बैठे रहना भी हजम नहीं हो रहा था, फ़िर हम दोनों ने वहीँ बारिश में भीगने का फ़ैसला किया। बहार निकले और पूरे कैम्पस में घूमने लगे। घुमते-घुमते हम उस गेट के पास पहुँच गए जहाँ से मैं हाल के लिए प्रवेश किया जाता है। वहीँ एक दीवार पर बैठकर हम बातें करते रहे, अपने ख्वाबों को पंख लगाकर उडाते रहे।

हर तरफ़ सिक्यूरिटी वाले तैनात थे इसलिए मुझे थोड़ा डर भी लग रहा था की कोई कुछ बोलने न आ जाए, मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उन लोगों ने दूर से हमारे ऊपर नजर राखी थी मगर किसी ने कुछ कहा नहीं। प्रेजिडेंट हाउस कैम्पस में बैठकर भीगने का मजा हमारे लिए अनमोल था और इससे भी खास था अपने आप को आजाद महसूस करने का एहसास। क्यूंकि मुझे नहीं लगता की दुनिया के किसी भी देश में आम इंसान को इतने करीब से अपने देश की ऐसी धरोहर को देखने और उसे महसूस करने का मौका मिलता हो। हलाँकि स्वतंत्रता दिवस करीब होने की वजह से कुछ लोग सिक्यूरिटी पर सवाल भी उठा सकते हैं, वह भी सही है, मगर हमारे लिए आजादी का एहसास इससे कहीं ज्यादा अहम् था................

वरना तो आज कल हर पल की चिंता कभी आजादी का एहसास ही नहीं होने देती ...........

Saturday, August 9, 2008

दर्द का ब्रेकिंग न्यूज़ या ब्रेकिंग न्यूज़ का दर्द

आज कल ये दोनों ही बातें काफ़ी कामन हो गई हैं। मगर इस कामन हो चुके सच ने काफ़ी लोगों को परेशान कर दिया है। परेशानी के दायरे में सिर्फ़ आम ही नहीं खास लोग भी शामिल हैं, लेकिन दिक्कत ये है की इससे निजात मिलने की उम्मीद दूर- दूर तक नजर नहीं आ रही है। आम लोगों को ये समझ नहीं आ रहा है की आख़िर चल क्या रहा है । जब तक अमिताभ बच्चन को खांसी आने और ऐश्वर्या राय को जुकाम होने की बात ब्रेकिंग न्यूज़ होती थी तब तक तो ये सोच कर चुप रह जाते थे की बड़े स्टार की बातें हैं, उनके बहुत चाहने वाले हैं जिन्हें उनकी सलामती की बातें बताना जरूरी है, पर अब लोग ये समझ पाने में अपने आप को नाकाम पा रहे हैं की ये सुप्रतिम नाम का कौन सा नया स्टार आ गया है?
ब्रेकिंग न्यूज़
सुप्रतिम को अस्पताल से छुट्टी मिली
ब्रेकिंग न्यूज़
सुप्रतिम के पिता ने कहा-बेटे पर भरोसा
ब्रेकिंग न्यूज़
डॉक्टर ने कहा सुप्रतिम पूरी तरह से स्वस्थ
ब्रेकिंग न्यूज़
सुप्रतिम ने कहा भगवान् पर भरोसा.......
ब्रेकिंग न्यूज़ का ये नया रूप देखकर न जाने कितने लोगों को बुखार आ गया, पर कर भी क्या सकते थे सिवाय चैनल चेंज करने के............
खास बात तो ये है की अपनी चोट के दर्द से परेशान ख़ुद सुप्रतिम और उनकी हालत से घबराए उनके परिजन भी इस बात को नहीं समझ पा रहे थे की आख़िर उन्हें इतनी अहमियत क्यूँ दी जा रही है? कहीं इसके पीछे कोई राज तो नहीं है? लेकिन उन्हें क्या पता की आजकल दर्द ब्रेकिंग न्यूज़ है, शर्त सिर्फ़ ये है की वो दर्द किसी बड़े शहर के बड़े व्यक्ति या बड़े शहर की बड़ी कम्पनी के एम्प्लाई का होना चाहिए। किसी गाँव के गरीब किसान का नहीं, जो सूखे, अकाल और कर्ज के दर्द से परेशान है........ब्रेकिंग न्यूज़ के निर्माता निर्देशक इस बात को भी जान बूझकर नजर अंदाज कर देना पसंद करते हैं की इसी देश में हर साल एक लाख से भी ज्यादा किसान दर्द के अंत के लिए जीवन का अंत कर देते हैं।
खैर वो भी करें तो क्या करें 'टी आर पी' के दर्द से परेशान जो हैं................

Tuesday, August 5, 2008

बदलते मायने.........

समय ने न सिर्फ़ हर चीज के मायने बदल दिए हेँ बल्कि रिश्तों को देखने का नजरिया भी बदल दिया है खास तौर से दिल्ली जैसे शहरों में रहने वालों के। यहाँ वालों के लिए तो यह बदलाव सामान्य बात है, मगर छोटे शहरों या कस्बाई कल्चर से आने वाले लोगों के लिए यह बदलाव या तो एक मजाक लग सकता है अथवा उनके पैरों नीचे से जमीं खिसकाने वाला हो सकता है।
पिछले दिनों मेरी एक दोस्त का जन्मदिन था, उसने काफ़ी पहले से प्लानिंग कर रखी थी की ऑफिस से छुट्टी लेकर हम पूरा दिन मस्ती करेंगे, एक मूवी देखेंगे और हो सका तो सेंट्रल पार्क भी जायेंगे। उसकी तमन्ना थी इसलिए मैंने भी इनकार नही किया। जैसा की हर आम दिल्ली वाले के साथ होता है की जिस चीज को देखने के लिए लोग देश के कोने कोने से यहाँ आ jate हैं, उस चीज को देखने के लिए यहाँ रहने वालों के पास टाइम नहीं होता है । इसी तरह से हम भी पहले कभी सेंट्रल पार्क नहीं गए थे । मगर जब से पार्क बन कर taiyar हुआ उसके बारे सुना, पढ़ा बहुत था इसलिए सुबह जब घर से निकलने लगे तो साथ में camera भी रख लिया। सेंट्रल पार्क जाकर ऐसा कुछ नहीं दिखा जिसके बारे में हमने सोचा था फ़िर भी साथ में camera था तो उसका istemal तो करना ही था। शायद यह पहला मौका था की हम बिना वजह बैठकर ये सब कर रहे थे इसलिए अपने आप पर हँसी तो aani ही थी । मगर बाद में देखा तो मेरी दोस्त के ये फोटो इतनी अच्छी लगी की उसने orkut
पे load कर दी। कुछ लोगों ने तो फोटो देख के बहुत अच्छा बताया मगर कुछ ने कहा की यार जल्दी से फोटो hataओ। वजह pucha तो बताया की तुम दोनों एक साथ इतने खुश हो, इतनी intimacy नजर आ रही है इसलिए अजीब लग रहा हैलोग तुम्हे abnormel समझ लेंगे। चलो बात aai गई हो gai।
पिछले दिनों हम friendship डे पर kahin jane का प्लान कर रहे थे तो बीच में एक दोस्त बोल पड़ी, यार तुम लोग कितने अजीब हो, मैं तो तुम्हारे साथ नहीं आ रही, मैं अभी इतनी भी modern नहीं hun, ये सुनकर सभी एक दुसरे की तरफ़ देखने लग गए। उसके bolne का matlab तो सबकी समझ आ रहा था मगर इस बात का फ़ैसला कोई नहीं कर पाया की वो कम modern है ki और log ? इसलिए कुछ कहने से बेहतर प्लान cancil करना ही लगा। friendship डे के दुसरे दिन मेरा एक class mate मुझसे मिलने आया। बातों बातों में उसने बताया की मैंने friendship डे पे बहुत enjoy किया । मैंने कहा, क्या क्या किया? तो बताया- long drive पे गया था udaypur तक। मैंने खुश हो के कहा - ऑफिस friends के साथ गए hoge? इतना बोलना था की वह कहता- आर yu crazy? With my girl friend यार। उसकी बातें sunne के बाद मेरे सामने पहले वाली दोनों बातों का matlab समझ आ गया। और ये भी की समय के साथ सब कुछ बदल जाता है लोगों की सोच, रिश्तों के मायने और किसी चीज को देखने का nazariya भी। जो नहीं badalta उसे और लोग या तो abnormal समझ लेते हैं या जरुरत से jyada modern..................