Friday, December 4, 2009

दिल्ली की ग्रीनरी यानी सावन के अंधे की हरियाली
यहां की ग्रीनरी का ज्यादातर हिस्सा एनवायरनमेंट फ्रेंडली नहीं
हकीकत
नीतू सिंह ॥ नई दिल्ली

ग्रीन कवर बढ़ाने के मामले दिल्ली सरकार भले ही अपने टारगेट से आगे चलने का दावा कर रही हो, लेकिन यहां की ग्रीनरी का ज्यादातर हिस्सा एनवायरनमेंट फ्रेंडली नहीं है। एनवायरनमेंट के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों का मानना है कि सरकारी एजेंसियों ने ग्रीन कवर की परिभाषा अपने तरीके से बदल दी है और जीआईएस (ज्योग्राफिक इन्फर्मेशन सिस्टम) में जितना एरिया हरा नजर आता है, उसे ग्रीन कवर का हिस्सा मान लिया जाता है। जबकि दिल्ली का ज्यादातर पुराना ग्रीन कवर जंगली जलेबी जैसी झाडिय़ों का रह गया है और नए प्लांटेशन की प्लानिंग सिर्फ ग्रीन कवर के टारगेट को पूरा करने के उद्देश्य से की गई है, न कि एनवायरनमेंट के लिहाज से।
एनवायरनमेंट एक्टिविस्ट अनादीश पाल कहते हैं कि पहले रिजर्व फॉरेस्ट और बड़े लोकल पेड़ों वाले एरिया को ही ग्रीन कवर मानते थे, लेकिन अब सड़क किनारे लगे खूबसूरती बढ़ाने वाले पौधों और छोटी-छोटी झाडिय़ों को भी ग्रीन कवर माना लिया जाता है। यही वजह है कि दिल्ली को सबसे हरे-भरे शहरों में शुमार किया जा रहा है। हकीकत यह है कि दिल्ली की सबसे ज्यादा ग्रीनरी रिज एरिया की है (7777 हेक्टेयर) और इसमें करीब 70 पर्सेंट हिस्सा अफ्रीकी पौधे - जंगली जलेबी और कीकर का है, जो तेजी से पानी सोखते हैं। इससे ग्राउंड वॉटर लेवल तो खराब होता ही है, उस हिस्से में लोकल घास और पौधे भी नहीं उगते। अनादीश कहते हैं कि पहले दिल्ली में जामुन, पलाश, महुआ, आम, नीम, पीपल व बरगद के पेड़ ज्यादा होते थे। इनकी देखभाल भी आसान है और ये एनवायरनमेंट फ्रेंडली होते हैं। ये पौधे समय के साथ रंग बदलते रहे। जब अंग्रेजों ने यहां शासन जमाया तब वे हर समय दिल्ली को हरा-भरा देखना चाहते थे इसलिए जितना खाली एरिया था उसमें अफ्रीका से जंगली जलेबी के बीज लाकर डलवा दिए। इसकी वजह से यहां के लोकल पौधे खत्म हो गए और ये पौधे बढ़ते चले गए।
एनवायरनमेंट के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था कल्पवृक्ष के साइंटिस्ट प्रभाकर कहते हैं कि फिलहाल एनडीएमसी के कुछ वीआईपी इलाकों के सड़क किनारे लगे पेड़ों को छोड़ दें तो पुराने अच्छे पेड़ों का रखरखाव सही तरीके से नहीं हो रहा है। इन्हें टाइल और तारों से ऐसे घेर दिया गया है कि इनका विकास नहीं हो पा रहा है। ऐसे में धीरे-धीरे ये पेड़ गिरते जा रहे हैं। नए कंस्ट्रक्शन में लाखों पेड़ काट दिए गए, जिनके बदले 10 गुना ज्यादा पेड़ लगाने थे। उदाहरण के तौर पर अगर ढाई लाख पेड़ कटे हैं तो 25 लाख नए पौधे लगाने होंगे, इस टारगेट को पूरा तो किया जा रहा है, मगर यह सिर्फ खानापूर्ति है। ज्यादातर प्लांटेशन शहर के बाहरी इलाकों में हो रहा है, जबकि जरूरत आबादी वाले इलाकों की आबोहवा सुधारने की है। इसकी जगह पर कॉलोनी के पार्कों में लोकल पौधे लगाए जाने चाहिए, जहां सिर्फ खूबसूरती बढ़ाने वाले पौधे लगाए गए हैं। सड़कों के किनारे लग रहे पौधे भी सिर्फ शोपीस हैं। इतना ही नहीं, कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान सड़कों की खूबसूरती बढ़ाने के लिए 275 करोड़ रुपये की लागत से मध्यम लंबाई के करीब सात लाख विदेशी पौधे मंगाए जाएंगे, जिन्हें मिट्टïी के गमलों में गेम्स होने तक सड़कों के किनारे रख दिया जाएगा और बाद में इन्हें हटा या नष्टï कर दिया जाएगा। इस योजना के तहत मॉल रोड के नजदीक छत्रसाल स्टेडियम और डीयू के आसपास के 3.6 किमी एरिया को भी कवर किया जाएगा, जिसमें 25 लाख का खर्च आएगा।

प्लांटेशन का अचीवमेंट (पर्सेंट में)
वर्ष टारगेट अचीवमेंट
2001 9.30 9.38
2002 9.00 9.10
2003 9.85 9.16
2004 10.50 11.44
2005 12.54 13.53


दिल्ली सरकार के फॉरेस्ट रिर्सोस असेसमेंट के आंकड़ों के मुताबिक, राजधानी का टोटल एरिया 1483 स्क्वेयर किमी है और यहां का ग्रीन कवर एरिया 283 स्क्वेयर किमी है। यानी राजधानी की 19.09 पर्सेंट धरती हरी-भरी है।

2 comments:

हेमन्त 'स्नेही' said...

अच्छा विषय उठाया है. बधाई. पेड़ के आसपास कि जगह पर टाइल्स लगा दिए जाने का मामला अलग से और जोरदार ढंग से उठाया जा सकता है, क्यों कि टाइल्स लगने के बाद पेड़ों को पानी नहीं मिल पाता, परिणाम स्वरुप जड़ें कमजोर हो जाती हैं और फिर पेड़ हलकी सी आंधी में भी गिर जाते हैं. खैर, एक बार फिर बधाई.

Pooja Prasad said...

नीतू, कभी कभी सोचती थी यह रिपोर्ट संभाल कर रख लेनी चाहिए। फिर डॉट कॉम के लिंक संभाल कर रख भी लेती। पर यह तो बहुत बढ़िया है कि तुम्हारे ब्लॉग पर तुम्हारी कई जानकारी परक स्टोरीज पढ़ी जा सकती हैं। शुभकामनाएं।