Sunday, April 20, 2008

...किस मोड़ खड़ी मैं


मोड़ था कैसा, तुझे थी खोने वाली मैं
रो ही पड़ी हूं, कभी न रोने वाली मैं
क्या झोंका था, चमक गया तन मन सारा
पता न था फिर राख थी होने वाली मैं
लहर थी कैसी, मुझे भंवर में ले आई
नदी किनारे हाथ भिगोने वाली मैं
रंग कहां था, फूल की पत्ती-पत्ती में
किरन-किरन सी धूप पिरोने वाली मैं
क्या दिन बीता आंख में सब कुछ फिरता है
जाग रही हूं, मजे से सोने वाली मैं
जो कुछ है इस पार वही उस पार भी मैं
नाव अब अपनी, आप डुबोने वाली मैं

1 comment:

poonam pandey said...

बहुत ही बेहतरीन कविता है। नाव अब अपनी, आप डुबोने वाली मैं....ये लाइनें तो दिल को छू लेती हैं।
keep it up