मोड़ था कैसा, तुझे थी खोने वाली मैं रो ही पड़ी हूं, कभी न रोने वाली मैं क्या झोंका था, चमक गया तन मन सारा पता न था फिर राख थी होने वाली मैं लहर थी कैसी, मुझे भंवर में ले आई नदी किनारे हाथ भिगोने वाली मैं रंग कहां था, फूल की पत्ती-पत्ती में किरन-किरन सी धूप पिरोने वाली मैं क्या दिन बीता आंख में सब कुछ फिरता है जाग रही हूं, मजे से सोने वाली मैं जो कुछ है इस पार वही उस पार भी मैं नाव अब अपनी, आप डुबोने वाली मैं
जिंदगी की शुरुआत से लेकर आज तक मिलने वाले सारे ही रास्ते अनजाने थे। अनजाने रास्तों पर चलते-चलते न जाने कब इन रास्तों से दोस्ती हो गई। अब तलाश रही हूं कुछ और नए रास्ते...नई दुनिया...नई मंजिलें...
1 comment:
बहुत ही बेहतरीन कविता है। नाव अब अपनी, आप डुबोने वाली मैं....ये लाइनें तो दिल को छू लेती हैं।
keep it up
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