वे कभी परिवार और समाज के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति हुआ करते थे, पर आज ओल्ड एज होम में उपेक्षित जीवन जी रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनका कोई वली वारिस नहीं है, भरा-पूरा और संपन्न परिवार है, लेकिन उन्हें मिली है उपेक्षा, एकाकीपन और भविष्य के प्रति चिंता। आंखों से खारा पानी सूख गया है, फिर भी वे किसी को दोष नहीं देते। रेत पर खिंची लकीरों की तरह झुर्रीदार चेहरा आसमान की ओर उठाकर ताकते हुए बस वे इतना कहते हैं कि हमें उनसे न कोई शिकवा है न शिकायत। पर हां, उनके कथन में निराशा नहीं, आत्म-विश्वास है, जीने की इच्छा है। शरीर और परिवार जरूर उनका साथ छोड़ता जा रहा है, लेकिन मन में दृढ़ संकल्प है। यह कहानी है नेताजी नगर स्थित संध्या ओल्ड एज होम में रहने वाले 52 बुजुर्गों की। इनमें से 90 प्रतिशत से ज्यादा लोग क्लास वन ऑफिसर रह चुके हैं और उन्होंने परिवार व समाज से जुड़ी जीवन की सारी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है। पर जीवन के आखिरी पड़ाव में पारिवारिक भूमिका में शायद वे फिट नहीं बैठ पाए, इसलिए अकेलेपन को ही जीवन का सत्य मानकर संतुष्टï हो गए हैं। जीवन के प्रति सकारात्मक रवैये का नमूना यह है कि वे अपने आपको उपेक्षित मानकर न तो चुपचाप बैठते हैं और न ही परिवार की शिकायत करते हैं। वे सुबह शाम अपनी महफिल जमाते हैं और अखबारों की खबरों तथा देश दुनिया की राजनीति पर चर्चा करते हैं। हां, उस समय उनके अकेलेपन का दर्द जरूर झलकने लगता है, जब कोई नया व्यक्ति उन्हें मिल जाता है। चाहे वह कूरियर वाला, पोस्टमैन, डॉक्टर अथवा अपनी जिज्ञासा लेकर पहुंचा कोई रिपोर्टर हो। कुछ पल के साथ में ही वे अपनी सारी भावनाओं को उड़ेल देना चाहते हैं। पर इस दौरान भी वे इस बात का ख्याल जरूर रखते हैं कि गलती से भी उनके मुंह से ऐसा कुछ न निकले जिससे उनके अपनों की रुसवाई हो। ऑल इंडिया रेडियो में न्यूज रीडर रहे एक बुजुर्ग कहते हैं कि मेरी तीन बेटियां हैं, तीनों की शादी हो चुकी है और क्योंकि हमारी संस्कृति बेटी के घर में रहने की अनुमति नहीं देती, इसलिए मैं यहां रहता हूं। वरना मेरी बेटियां मुझे बहुत प्यार करती हैं। स्टील प्लांट में इंजीनियर रह चुके एक बुजुर्ग बड़े गर्व से बताते हैं कि मेरे तीन बेटे हैं, जिनमें से दो अमेरिका में हैं और एक इंडिया में है। वह ओल्ड एज होम में क्यों रहते हैं पूछने पर कहते हैं, यह भी तो मेरा अपना परिवार है। यहां रहने वालों में नौ कपल हैं, छह अकेली महिलाएं और बाकी पुरुष हैं। इनमें कोई एम्स में, कोई पूसा में, कोई रेलवे में कोई जल बोर्ड में तो कोई प्रशासनिक सेवा में रह चुका है और लगभग सभी लोगों को पर्याप्त पेंशन आदि मिलता है। इसके बावजूद उन्हें यहां क्यों रहना पड़ता है? पूछने पर कहते हैं यहां सुबह छह बजे चाय मिलती है, आठ बजे नाश्ता और एक बजे लंच मिल जाता है। घर में व्यस्त बहू, बेटियां अपने तरीके से सोती हैं, अपने तरीके से जागती हैं, इस सबके बीच हमारे नियम उनके लिए परेशानी खड़ी करें इससे अच्छा है कि वो अपनी जिंदगी में खुश रहें और हम अपनी में।
इतना भी बुरा नहीं यह वक्त, जितना सब कोसते हैं
10 years ago
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